"मन है मंदिर
किसी ने जाना
नहीं ,
वीर भीष्म बने पुरुष
हमेशा ,
केवल करते नारी
अत्याचार हमेशा ।।
इन्होंने नारी शक्ति
को जाना नहीं
,
हिमालय की क्षमता
को पहचाना नहीं ||
करती सब पर
परोपकार,
सहती सबका अत्याचार
नारी तुम खुद
को पहचानो ,
अपना
अस्तित्व तुम स्वयं
बनालो ॥
मन है
मंदिर किसी ने
जाना नहीं ,
तुम्हारे कमल नेत्रों
के पानी को
देखने वाला नहीं ,
ये भीर पुरुष
तुमको पहचानने वाले नहीं,
हो चुका भारत स्वत्रंत फिर
भी अंग्रेज
कहर ढाहेग़े ,
खुद
को महान बतायेगे ॥
बहुत हो गया
यह सब अब
स्वंम को पहचानो
तुम ,
और कर
दो नारी शक्ति
की जयजयकार ॥
मन
है मंदिर किसी
ने जाना नहीं,
नारी को किसी
ने पहचाना नहीं॥
''
नारी शोषण पर बेहद शानदार कविता है ये. उपमा जी इसी तरह अच्छे मुद्दों पर रचनाएँ करती रहिये. All the best.
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